Monday 30 September 2013

माँ की उपमा




माँ ......
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि
तेरी उपमा मैं दू सागर से
पर मेरा मन विचलित हो जाता है
और सोचती हूँ माँ सागर जैसा विशाल तो तेरा ह्रदय है,
पर उसके पानी के खारापन का एक अंश भी तेरे ह्रदय क दूध में नहीं माँ
और तब मेरा यह ख्याल व्यर्थ हो जाता है|
फिर मेरा मन सोचता है की
तेरी उपमा मैं दू अम्बर से
पर फिर मनन विचलित हो जाता है
और सोचती हूँ अम्बर जैसा अथाह तोह तेरा प्रेम है माँ
पर उस पर आने वाली सूर्य की करवाहत का एक अंश भी तेरी बोली में नहीं है माँ
तेरी बोली की कोमलता के सामने कमल भी शर्मा जायेगा
और तब मेरा ये ख्याल भी व्यर्थ चला जाता है माँ|
और जब मैं कुछ और सोचती हूँ तोह मेरा मन कहता है
"अरे! माँ तो अनुपमा है,
 इसकी उपमा तो तू दे ही नहीं सकती||"

This poem is dedicated to my mom who actually made me what I'm today. I don't have words to express my gratitude for all those little and big things she did for me and still doing for me. So only 3 words I Love You.


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